कृष्ण का जन्म अपने आप में मानव प्रजाति लिए एक उत्सव है | हमें यह उत्सव मनाना ही चाहिए क्योंकि कृष्ण अर्जुन को उसके निर्णय लेने के समय में आने वाली उलझनों को तो दूर करते ही हैं , साथ ही वो सम्पूर्ण मानव जाती के लिए एक ऐसी ज्ञान की वर्षा करते है जिसकी कुछ बूंदो से भी मनुष्य भीग जाये तो उसका जीवन एक पीड़ा न रहकर उत्सव बन जाएगा |
हजारों साल पुराना कृष्ण का सन्देश ऐसे लगता है मानो आज के समय के लिए ही गढ़ा गया हो | एक ऐसा समय जिसमें मनुष्य के पास अत्यधिक बुद्धि होने के बावजूद वो अपना सम्पूर्ण जीवन दुखों और पीड़ा के साथ जी रहा है , सब कुछ प्राप्त करने के पश्चात भी उसकी प्यास मिट नहीं रही है | नित नये प्रपंच और योजनाए उसे शान्ति के मुकाम पर नहीं पहुंचा रही है | मानव जाती के लिए कृष्ण का सन्देश उपलब्ध होने के बाद हम आज भी ईर्ष्या , घृणा , अहंकार , क्रोध जैसी नकारात्मक ऊर्जाओं के साथ जी रहे है तो कहीं न कही हमे अपने जीवन की व्याख्या पर सोचने की आवश्यकता है |
१. कर्म वापस लौटते हैं | कर्मों का परिणाम निश्चित हैं |
यह उतना ही बड़ा सत्य है जितना यह की सूर्य पूर्व दिशा से उगता है | इसे कोई एक इंच भी डिगा नहीं सकता | यह इतनी सूक्ष्म बात है कि जिसे मानने के लिए हमें बड़ा सजग हो कर जीवन जीने कि आवश्यकता है | एक होशपूर्ण जीवन ही यह सुनिश्चित कर सकता है कि हमारे द्वारा किया गया एक एक कर्म और हमारे मुँह से निकला एक एक शब्द हमारे नियंत्रण में रहे | एक होशपूर्ण जीवन ही एक ऐसे परिवेश का निर्माण कर सकता है जिसमें हम हमारे कर्मो को निर्धारित कर सकें | यदि हम इस बात पर गौर करें तो हम पाएंगे कि हमारी व्यवसायिक सफलता के लिए भी यह सूत्र अत्यंत उपयोगी है | यदि हम प्रतिदिन अपनी व्यावसायिक उद्देश्य कि प्राप्ति कि दिशा में कर्म करें तो आने वाला परिणाम हमें सुखद एहसास दिलाने वाला होगा | इसका विपरीत भी उतना ही सत्य है | यदि हम कर्म का बीज किसी का नुकसान करने के लिए या फिर योंही दिशाविहीन भी कर रहें है तो भी परिणाम कर्म के अनुरूप ही होगा | विजय कि दिशा में किये गए सकारात्मक कर्म, सकारात्मक परिणाम सुनिश्चित करते हैं|
२. कर्म किये जा , फल कि चिंता मत कर
अब यह कथन बड़ा विचित्र कथन है | बिना फल कि चिंता के कोई कर्म कैसे कर सकता है? एक तरफ यह कहा जा रहा हैं कि आपके कर्म आपके परिणामो को सुनिश्चित करता है और फिर भी यह कैसे हो सकता है कि हम परिणामो के बारें में न सोचे और कर्म किये जाएँ |
यहाँ पर सन्देश यह है कि परिणाम के बारे में सोचकर कर्मों कि दिशा तो तय कि जाए किन्तु परिणाम के प्रति कोई आसक्ति न रखी जाए | जो भी परिणाम हो उसे स्वीकार करना चाहिए | परिणाम यदि आशा अनुरूप न भी हो तो दुःख नहीं मनाना चाहिए अथवा यों कहें कि परिणाम कि आशा ही नहीं रखनी चाहिए |
3. अहंकार
मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु उसका स्वयं का अहंकार है | हमारा अहंकार एक मात्र बाधा है हमारे जीवन को आनंद कि दिशा कि और ले जाने में | समस्त बुराइयों कि जड़ अहंकार है और आप इस कथन को बिलकुल हल्के में न लें जब यह कहा जाता है कि मनुष्य कि अधिकतम दुखो के केंद्र में अहंकार ही है | अहंकार दूसरी बुराइयों को जन्म देने में महारथी है | ईर्ष्या, क्रोध, षड्यंत्र- यह सब अहंकार के ही अतिउत्पाद है |अहंकार के सामने समस्त भावनाएं और तर्क समाप्त हो जाते हैं | जो व्यक्ति अहंकार के घोड़े पर सवार होकर जीवन कि यात्रा करने का भ्रम पाले हुए है उसका जीवन भर भटकते रहना निश्चित है | अहंकार निंदा से पोषित होता है | जब तक अहंकार किसी कि निंदा न करले वो प्यासा ही रह जाता है | किसी कि निंदा करना केवल मात्र अपने अहंकार को संतुष्ट करना ही है |अहंकार आपके ह्रदय, भावनाओं को रसातल में पहुंचा देता हैं और आपकी बुध्दि पर सवार होकर आपसे नित नए प्रपंच करवाता है | अहंकारी व्यक्ति के लिए किसी कि प्रशंशा करना बड़ा मुश्किल होता है और निंदा में वो माहिर होता हैं | प्रशंशा केवल ह्रदय ही कर सकता हैं , निंदा के लिए ह्रदय नहीं अहंकार कि आवश्यकता है | अब हम किसी को बड़े दिल वाला कहते हैं तो दरअसल हम यही कहना कहते है कि यह व्यक्ति स्वयं के ह्रदय कि सुनता हैं , अहंकार कि नहीं | तय यह करना है कि हमारी बुद्धि ह्रदय के अधीन होनी चाहिए या अहंकार के ?